Monday, 13 August 2012

असफलता से बचने के लिए जरूरी हैं ये तीन गुण

सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता है, तो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता। अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी। ये त्रिगुण जिसके पास हैं, वह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशु, लेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व की, यानी राजा बनने की क्षमता। एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्चा  माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के उस काफिले पर हमला किया। भेडें भागीं, तो शेर का बच्चा भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ गया। उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर है, सबसे अलग, सबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है। संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगी, पर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा।

Sunday, 12 August 2012

परेशानी दूर करने का निदान ढूंढे़

जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़। जब भी हम निराश हों, असफल हों, दुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगे, हमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैं, इसलिए उनमें से उस एक को पकड़ो, जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है। लेकिन उससे झगड़ा न किया जाए, क्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।
इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगे, उतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं। कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता है, जो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैं, उससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।

Thursday, 9 August 2012

अन्ना पार्टी : गांधी को शीर्षासन

ना तो मैं अन्ना का समर्थक हूँ और ना ही कांग्रेस या किसी दूसरे राजनैतिक दल का, लेकिन "अन्ना पार्टी : गांधी को शीर्षासन" शीर्षक का लेख वेदप्रताप वैदिक जी ने बहुत अच्छा लिखा हैमुझे लगा आपको भी पढना चाहिए...इस लिए इसे ब्लॉग पर डाला है। 

"जन-आंदोलन की दो पटरियों में से एक पटरी बिल्कुल उखड़ गई है। एक बाबा रामदेव की पटरी और दूसरी थी अन्ना हजारे की पटरी। अन्ना हजारे को हमारे कुछ पत्रकार भाई गांधीवादी कहते नहीं थकते, लेकिन बेचारे अन्ना ने अपने ताजा फैसले से गांधी को शीर्षासन करवा दिया। आजादी के बाद गांधी कहते थे कि कांग्रेस पार्टी की जरूरत नहीं है। उसे भंग करो। लोक-सेवक संघ बनाओ। अन्ना ने जन-आंदोलन को भंग कर दिया और कहा कि पार्टी बनाओ। अन्ना की इस अदा पर मैं फिदा हूं। वह कहते हैं कि इस पार्टी से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैं इसमें नहीं हूं, लेकिन इसकी मदद पूरी करूंगा। गांव-गांव घूमूंगा। अच्छे उम्मीदवार चुनूंगा। चुनाव खुद नहीं लड़ूंगा, लेकिन उनको लड़वाऊंगा। वाह! क्या अद्भुत अदा है? लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। फारसी की एक कहावत है, जिसका भारतीय लहजे में अनुवाद करें तो यूं होगा कि 'फेरे मैं पड़ूंगा, लेकिन बच्चे तुम पैदा करो।' इस दुविधा में से पैदा हुई पार्टी का भविष्य क्या होगा, इसका अनुमान एक बच्चा भी लगा सकता है। पार्टी बनाना गलत नहीं है। वास्तव में बहुत अच्छा है, लेकिन आप गए तो थे रामभजन को और ओटने लगे कपास। अरे भई, पार्टी ही बनानी थी तो पिछले अगस्त में ही बना लेते। क्या मालूम कागज (अखबार) और परदे (टीवी) के शेर सचमुच असली शेरों में बदल जाते, लेकिन अब जब मुंबई और दिल्ली के अनशनों ने 'शेरों' को मिमियाती भेड़ों में बदल दिया तो आपको पार्टी बनाने की सूझी। पार्टी के नाम से प्रचार का कुछ न कुछ जुगाड़ तो बैठ जाएगा, लेकिन आपके अचानक अनशन तोडऩे ने जनता को जो धक्का पहुंचाया है, उसका आजाद भारत में कोई सानी नहीं है। इन अनशनों ने भारत की जनता को जिस तरह बेदार किया था, यदि वे उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाए जाते तो देश अपूर्व परिवर्तन को प्राप्त होता। लेकिन आपने अपनी सेंत-मेंत में मिली प्रतिष्ठा को भी खोया और उससे भी दुखद यह है कि अनशन की पवित्रता और प्रतिष्ठा को भी रसातल में पहुंचा दिया। उन बहादुराना भाषणों का क्या हुआ कि अब मरकर ही उठेंगे? अब मर तो गए ही, उठने का भी कुछ पता नहीं। आमरण अनशन का ऐसा मरण हमने कभी नहीं देखा। अनशन की अंत्येष्टि से निकली राजनीतिक पार्टी आपको कितना उठाएगी, किसे पता है। जिस पार्टी के मूल में ही धूल पड़ी हो, वह शुभंकर कैसे बन सकती है? यह पार्टी या तो गहरी कायरता या गहरी हताशा की संतान है। यह क्या तीर मारेगी? भारत के लोग अब अखबारों और टीवी के परदों पर इस तथाकथित पार्टी की कलाबाजियों का रस लेंगे। वे देखेंगे कि नेताओं को गरियाने वाले लोग खुद नेता बनने चले हैं। जो कल तक कहते थे कि आंगन ही टेढ़ा है, अब वे भी उसी आंगन पर नाचने को उतारू हो गए हैं। वे टेढ़े आंगन को सीधा करते-करते खुद टेढ़े हो जाएंगे। क्या ज्यादातर नेता राजनीति में आने के पहले साफ-सुथरे और आदर्शवादी नहीं होते हैं? जरूर होते हैं, लेकिन यह काजल की कोठरी है, इसमें घुसोगे तो आप भी काले हुए बिना नहीं रहोगे। इसमें घुसकर इसे जयप्रकाश और लोहिया जैसे महापुरुष साफ नहीं कर पाए तो कुछ कागजी शेर क्या कर लेंगे? कागज के गुड्डों को गलतफहमी हो गई है कि वे शेर हैं। गांधी की टोपी लगाकर क्या कोई गांधी बन जाता है? भगत सिंह जैसी मूंछें रखने से ही क्या कोई भगत सिंह बन जाता है? इसमें शक नहीं कि टीम अन्ना के प्रयासों से भ्रष्टाचार-विरोधी जन-आक्रोश को वाणी मिली, लेकिन टीम को यह भ्रम हो गया कि यह आंदोलन है और उसने ही इस आंदोलन को पैदा किया है। वास्तव में वह आंदोलन था ही नहीं। वह तो एक स्वत:स्फूर्त जन-आक्रोश था। वह आंदोलन बन सकता था, लेकिन जन-आक्रोश के आगे झंडा लेकर खड़े होने वाले लोगों ने इस अपूर्व अवसर को धीरे-धीरे गंवा दिया। वे यह भूल गए कि उन्होंने 'आंदोलन' खड़ा नहीं किया, बल्कि 'आंदोलन' ने उन्हें खड़ा किया। आंदोलन की विफलता से जन्मी इस पार्टी को यह भ्रम भी है कि यह जयप्रकाश की जनता पार्टी बन जाएगी। जनता पार्टी आपातकाल के सफल और सतत संघर्ष से जन्मी थी। वह अखबार और टीवी की संतान नहीं थी। इसके अलावा उसके पास जयप्रकाश, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वटवृक्ष थे। इस पार्टी के पास ले-देकरएक अन्ना हैं, जो यह कहते नहीं थकते कि मैं चुनाव लडूं तो मेरी जमानत जब्त हो जाएगी। जो पल में माशा और पल में तोला हो जाते हैं। जो टोपी गांधी की लगाते हैं और भाषा दादाओं की बोलते हैं (बस एक ही चांटा?)। जो एक दिन नरेंद्र मोदी के भक्तिभाव में बह जाते हैं और दूसरे दिन सेकुलरवादी बन जाते हैं। यानी वह सब कुछ हैं और कुछ भी नहीं। वह मूक प्रतीक यानी मिट्टी के माधव बने रहें और पुजारीगण अपनी दुकान चलाते रहें, वहां तक तो सब ठीक-ठाक है। लेकिन क्या ऐसे लोगों के सहारे कोई राष्ट्र राजनीति चलाने की बात सोच सकता है? जहां कोई नेता नहीं, कोई संगठन नहीं, कोई व्यापक नीति नहीं, कार्यक्रम नहीं, संघर्ष की हिम्मत नहीं, पैसा नहीं, वहां पार्टी बनाने की बजाय यदि कोई सचमुच का आंदोलन खड़ा कर दिया जाता तो उसमें से कांग्रेस की तरह कोई बड़ी पार्टी निकलती, जो मरते-मरते भी जिंदा रहती और जिसका विकल्प अभी सवा सौ साल बाद भी कोई खड़ा नहीं कर पाया। भारत की राजनीतिक पार्टियां क्या हैं? वे सिर्फ चुनावी मशीन बनकर रह गई हैं। आज भारत को ऐसी राजनीतिक पार्टी की जरूरत है, जिसके द्वार सबके लिए खुले हों। अब टीम अन्ना के बजाय ऐसी अन्ना पार्टी सामने आएगी, जिसने जन-संघर्ष के मुंह पर ताला ठोंक दिया है और देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं को अपना दुश्मन बना लिया है। जयप्रकाश ने कम से कम सत्ता को उलट दिया था, अब सत्ता-प्रेम ने अन्ना-आंदोलन को ही उलट दिया है। लोग अब अखबारों और टीवी के परदों पर अन्ना की इस तथाकथित पार्टी की कलाबाजियों का रस लेंगे। जो कल तक कहते थे कि आंगन ही टेढ़ा है, अब वे भी उसी आंगन पर नाचने को उतारू हो गए हैं। अब टीम अन्ना के बजाय ऐसी अन्ना पार्टी सामने आएगी, जिसने जन-संघर्ष के मुंह पर ताला ठोंक दिया है और देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं को अपना दुश्मन बना लिया है।" 

किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे को १९९० में 'पद्मश्री' व १९९२ में 'पद्म भूषण' से नवाजा गया। वर्ष २०११ में प्रतिष्ठित पत्रिका 'फॉरेन पॉलिसी' ने उन्हें दुनिया के शीर्ष १०० विचारकों की सूची में शामिल किया था।